मौलिक सिर्जना (लघुकथा)
रमेशचन्द्र घिमिरे |
~ उसले वर्णविन्यासका आधुनिक नियम पढेर सच्यायो ।
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• `तै एकचोटि विज्ञलाई त देखाऊँ´ । विज्ञसँग पनि सुझाव माग्यो । विज्ञले नाक खुम्च्याउँदै `हल्का भएको´ आरोप तेसारे ।
~ उसले गरुङ्गो बनाउन खोज्यो ।
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• `फिक्सन´ नै नभएपछि कसरी पढ्न मजा हुन्छ हो तपाईंको रचनामा ?´ अर्का विज्ञले खिस्याउँदै आफ्नो विद्वता ओकले ।
~ उसले जबर्जस्ती कथा कोचार्यो ।
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• `केटाकेटी पाराले लेख्नुहुँदो रहेछ ।´ एकथरिले उल्लीबिल्ली बनाए ।
~ उसले ठूलाबडाले रुचाउने खालको परिपक्व बनाउन खोज्यो ।
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• `कसैले `मूर्त भयो´ भनेर खिस्याए । `यसरी सजिलै बुझिने पनि साहित्य हुन्छ ?´ भनेर होच्याए ।
~ उसले सकेसम्म नबुझिने बनाउनु पर्ने रहेछ भन्ने सोचेर त्यसै गर्यो ।
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• `शब्दचयन फितलो भयो´ । अर्का विज्ञले निधारै मुजा पर्ने गरेर आँखा तर्दै पातो हुर्याइदिए ।
~ उसले शब्दकोशको सहायताले जटिल तत्सम शब्द राखेर मिलायो ।
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• `व्याकरणिक त्रुटि भयो ।´ `भाषिकाको प्रयोग गरेर तपाईंले मात्रै बुझ्ने हो र ?´ आफूलाई भाषाविज्ञानका ज्ञाता ठान्नेहरूले भाषिक दोष अौँल्याउँदै थर्काए ।
~ उसले मानक भाषालाई नै जोड दिएर सोहीबमोजिम लेख्यो ।
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• कसैले उसको रचनामा `जातीय आक्षेप देखिएको´, `लैङ्गिक पक्षपातको गन्ध आएको´, `अपाङ्ग मैत्री हुन नसकेको´ जस्तो कमजोरी देखाइदिए । कतिले `लोकतन्त्रको मर्मअनुरूप नभएको´ भन्दै कानुनी कुरा गरे ।
~ उसले `हस्´ भन्दै सकेसम्म लोकतान्त्रिक र कानुनसम्मत बनाउने उपाय खोज्यो ।
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* तर कसैले पनि ठीकै छ, राम्रै लेख्यौ भनेर हौसला दिनु आफ्नो धर्म ठानेनन् ।
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# `सबैले भनेको मान्दै जाने हो भने मैले त नलेखे पनि हुने रहेछ´ भनेर ऊ एकैछिन त खङ्ग्र्याङ-खुङ्ग्रुङ्गै भयो अनि काँटछाँट गरिसकेपछि तयार भएको आफ्नो रचना पुनः पढ्यो । किन-किन उसले यो रचनामा कत्ति पनि मिठास भेटेन । नयाँ रचना उसलाई गाईजात्रे लाग्यो, खिचडी जस्तो लाग्यो । सामान्य पाठकले कस्तो प्रतिक्रिया दिँदा रहेछन् भन्ने सोचेर उसले आफूले सुरुमा जे लेखेको थियो त्यही रचना नै जस्ताको तस्तै पत्रिकामा छाप्न पठायो ।
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- भोर्लेटार, लमजुङ
(२०७७/०१/०६)
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